Thursday, September 8, 2011

क्रिकेट को क्रिकेट ही रहने दो

इंग्लैंड दौरे पर गयी भारतीय क्रिकेट टीम ने देश के क्रिकेट के दीवानों को अचानक मानो सदमे में ला दिया। दुनिया की नंबर एक टेस्ट टीम होने के गर्व के साथ वहां पहुंची टीम को इंग्लैंड ने मटियामेट कर दिया तो मानो देश के अधिकांश क्रिकेट प्रेमियों का दिल बैठ गया हो। इतना ही नहीं, इससे भी बड़ी निराशा उन्हें हाथ लगी उस खिलाड़ी से, जिसे प्रशंसकों ने भगवान ही कहना शुरु कर दिया है। मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर के लिए सीरीज बेहद निराशाजनक रही और उनके प्रशंसक उनके 100वें अंतरराष्ट्रीय शतक का इंतजार भर करते रह गये। हद तो यह है कि इतिहास में कोई पहली बार भारतीय टीम को करारी हार का सामना नहीं करना पड़ा है, लेकिन फिर भी दर्शक ऐसा शोक मनाने में लग जाते हैं जैसे अनर्थ हो गया हो। दरअसल, यह हालत पैदा हुई है उस मानसिकता के कारण, जिसका भरण-पोषण कर विश्व बाजार ने भारत में क्रिकेट और क्रिकेटरों को भगवान जैसा साबित करने की कोशिश की।
इसी वर्ष के शुरुआत की बात है, जब भारतीय टीम विश्व कप जीतने से पहले दक्षिण अफीका के दौरे पर गयी थी। उस टेस्ट श्रृंखला में भी उसे शर्मनाक हार झेलनी पड़ी थी, लेकिन तब यह शर्म सचिन के 50वें टेस्ट शतक की खुशी में बह गयी। इस बार भी अगर सचिन चौथे टेस्ट में शतक ठोक जाते तो शायद प्रशंसक सारा गम भुला देते। इस बार वैसे भी उतना ज्यादा हो-हल्ला नहीं हुआ, जितना इस देश में हरेक हार के साथ होता आया है। शायद इसलिए कि विश्व कप जीतने के बाद टीम लुट-पिटकर ही सही, वेस्टइंडीज दौरे से भी विजेता बनकर लौटी थी। उसका यह क्रम इंग्लैंड तक बरकरार नहीं रह सका।
दरअसल, इस खुशी और गम को हवा देने का काम भी कहीं नेपथ्य से नियंत्रित होने जैसा लगता है। आखिर क्या वजह है कि पिछले कुछ वर्षों से सचिन का बल्ला अधिकतर उन मैचों में शतक उगलता है, जिनमें भारतीय टीम जीत से वंचित रहती है? क्या यह भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए हार पचाने का कोई यंत्र है। सचिन जैसे महान खिलाड़ी पर बिना किसी ठोस प्रमाण के न तो अंगुली उठायी जा सकती है और न ही ऐसा किया जाना चाहिए, लेकिन मैदानी नतीजों को अतिरेक का लबादा देने का काम मीडिया से लेकर तमाम अन्य मोर्चों पर जिस जोर-शोर के साथ चल रहा है, वह कहीं न कहीं आशंका पैदा करता है।
आखिर आशंका हो भी क्यों नहीं, टीम के विश्व कप जीतने से पहले ही टूर्नामेंट के आयोजकों को करोड़ों का टैक्स माफ करने की घोषणा कर दी जाती है, जबकि किसी भी हालत में जनता के गाढ़े पसीने की कमाई की ऐसी लूट को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है। संसदीय समिति तक ने इस पर सवाल उठाये हैं। इसी तरह क्रिकेट की छोटी-मोटी सफलता को अलंकारों से सजाने में मीडिया से लेकर तमाम अन्य संस्थाएं बाजार के सहायक उपकरण की तरह इस्तेमाल हो रही हैं और इस वजह इसका जुनून आमोखास के दिलो-दिमाग पर छा रहा है।
ऐसे में इस बात का अहसास होना जरूरी है कि क्रिकेट की दुनिया भी आम इंसानों से ही बनी है, साथ ही इसका मूल्यांकन भी जरूरी है कि सालाना खरबों का वारा-न्यारा करने वाला क्रिकेट बाजार सही मायनो में समाज और संस्कृति के लिए क्या योगदान कर रहा है। सबसे ताज्जुब की बात है कि बौध्दिक तौर पर सुदृढ़ और संपन्न माना जाने वाला भारत उन इक्के-दुक्के देशों में शामिल है, जहां क्रिकेट को ऐसी अहमियत हासिल है। यह बात तमाम अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी भी कबूल चुके हैं। भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में भी थोड़ी बहुत हालत ऐसी है जहां क्रिकेटर खेल के मैदान से संन्यास लेने के बाद राजनीति के मैदान में न सिर्फ कूदते हैं, बल्कि सफलता भी पाते हैं। लगभग वैसे ही, जैसे दक्षिण भारत के फिल्मी सितारे करते हैं। इसी कारण श्रीलंकाई क्रिकेट व्यवस्था राजनीति से नियंत्रित और पोषित होने लगी है।
भारत जैसे सुसंस्कृत और विचारशील देश में क्रिकेट और बाजार के घालमेल पर स्तरीय विमर्श की जरूरत और भी बढ़ जाती है। 1983 और 2011 के विश्व कप, 2007 का ट्वेंटी-20 विश्व कप या फिर कोई अन्य सीरीज हो, भारतीय टीम की सफलता हमेशा से नया जुनून और नये हीरो पैदा करती रही है। ऐसा अन्य खेलों या अन्य मोर्चों पर भारत की सफलता के बाद संभव नहीं हो पाता है। मगर विडंबना यह है कि जिन खिलाड़ियों को लोग भगवान जैसा मानने लगते हैं और युवा अपना आदर्श मान बैठते हैं, वे अंधाधुंध कमाई की होड़ में मूल्यों को न सिर्फ ताक पर रखते हैं, बल्कि कुसंस्कारों को बढ़ावा भी देते हैं। सचिन जैसे कुछ अपवाद खिलाड़ियों ने भले ही कुछ मौकों पर मिसाल पेश की हो लेकिन अधिकांश खिलाड़ी इस मानसिकता से ग्रसित हैं। आलम यह है कि अल्पवयस्क युवाओं की पार्टी में जब एक लड़का शराब पीने से इंकार करता है तो उसके साथी उसे मनाते हुए कहते हैं, ”पी ले ना यार, धोनी भी पीता है।” और धोनी को रोल माडल मानने वाला लड़का तुरंत जाम होंठों से लगा लेता है। सचिन ने एक शराब कंपनी की करोड़ों की पेशकश ठुकरा दी थी और लगभग सभी खिलाड़ी उनको अपना आदर्श मानकर उनका सम्मान करते हैं। तो क्या यह सम्मान दिखावा मात्र नहीं है। आज पांच साल से ऊपर के करोड़ों बच्चे किसी न किसी क्रिकेटर को अपना आदर्श मानते हैं और उनका बालमन उनकी नकल करने को लालायित होता है, तो क्या ये खिलाड़ी आने वाली पीढ़ी को नशे की गर्त में धकेलना चाहते हैं?
कहा जा सकता है कि किसी को इस बारे में दिशानिर्देश देना उचित नहीं है, लेकिन खिलाड़ियों को देशवासी इतना सम्मान देते हैं तो इस नाते उनकी कुछ जिम्मेदारी भी बनती है। उनकी सामाजिक जिम्मेदारी और नैतिकता का अहसास उन्हें दिलाना ही चाहिए। साथ ही उस भ्रमजाल से आम आदमी को दूर करना चाहिए, जिसके कारण आम आदमी क्रिकेटरों का अंधभक्त बना हुआ है। क्रिकेटरों की अपनी राष्ट्रीय टीम के प्रति जबावदेही और ईमानदारी तो हाल के दिनों में संदेह के घेरे में आ ही चुकी है।
वेस्टइंडीज दौरे के लिए भारतीय क्रिकेट टीम की कप्तानी के लिए चुने गये गौतम गंभीर और हरफनमौला युवराज सिंह का टीम से अचानक बाहर होना यह दर्शा चुका है कि आज के दौर में क्रिकेटर पैसा कमाने की मशीन में तब्दील होते जा रहे हैं। यह अलग बात है कि वे अपनी इस सच्चाई को तभी अपने मुंह से बयान करते हैं, जब टीम को हार का सामना करना पड़ता है। क्रिकेट हमारे देश में सबसे लोकप्रिय खेल बन चुका है, लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि यह खेल आज अवैध कमाई, सट्टेबाजी, मैच फिक्सिंग और अन्य तरह के अनैतिक व्यापार के जरिए के रूप में बदलता जा रहा है। खिलाड़ियों पर पैसा बरस रहा है, लिहाजा उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि वे साल में कितने दिन खेले?
दो-तीन दशक पहले एक साल में एक या दो से ज्यादा सीरिज नहीं होती थी। जाहिर है, तब क्रिकेट में न इतना पैसा था और न इतनी पब्लिसिटी। दर्शक अपने चहेते खिलाड़ियों को जानते थे, लेकिन ठीक से पहचान तक नहीं पाते थे। उस समय क्रिकेट में सिर्फ क्रिकेट ही नजर आती थी। आज जमाना बदल चुका है। अब क्रिकेट के नाम पर सिर्फ चौके-छक्के देखना ही दर्शक पसंद करता है। खिलाड़ी हैं कि पैसों के लिए लाइन में लगकर अपने आपको नीलाम करने में गौरवान्वित महसूस करते हैं। ऊपर से मैच में सट्टेबाजी, मैच फिक्सिंग और कंपनियों की करोड़ों की कमाई। भारतीय टीम के पूर्व कप्तान मोहम्मद अजहरूद्दीन के समय से शुरू हुआ मैच फिक्सिंग का शिकंजा आज कहां तक पहुंच गया, अनुमान लगा पाना ही कठिन है। अब तो क्रिकेट बोर्डों पर भी मैच फिक्सिंग में शामिल होने के आरोप सामान्य होते जा रहे हैं। डे्सिंग रूम तक पहुंचने में सट्टेबाज सफल होने लगे हैं, तो अनुमान लगाना मुश्किल नहीं कि क्रिकेट के नाम पर क्या हो रहा है। पाकिस्तान क्रिकेट टीम के कोच रहे वॉव वूल्मर की हत्या क्रिकेट में छाई सट्टेबाजी की काली कहानी बयान करती है। मैच खेलकर, विज्ञापन में आकर क्रिकेट खिलाड़ी पैसा कमाएं, इसमें कोई बुराई नहीं, लेकिन कमाई के इस चक्कर में खिलाड़ी मशीन न बन जाएं और समाज का अहित नहीं करें, इस बात का ध्यान सभी को रखना पड़ेगा।

Saturday, August 23, 2008

लाफ्टर: मिथिला टू मुंबई वाया जमशेदपुर

श्री गोविन्द पाठक पिछले दस वर्ष से रंगमंच से जुड़े हुए हैं। मैथिली, भोजपुरी आदि लोकभाषाओं में उन्होंने अपनी कला का लोहा मनवाया है। श्री पाठक कई टेलीविजन धारावाहिकों में काम कर चुके हैं और अंतर्राष्ट्रीय मैथिली सम्मलेन सहित कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में बतौर उद्घोषक रहे हैं। पिछले दिनों वह हास्यकला की प्रतियोगिता ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेन्ज -4- में हिस्सा लेने पहुंचे। उनकी प्रस्तुति का आप भी आनंद उठाइए। वीडियो देखने के लिए निचे क्लिक करें।